2018 में मैंने मरने की और एक रस्म भी पूरी की है, मरहूम के मुतालिक अपनी मौत का एलान खुद लिख दिया है , ताकि किसी बेवफा चाहने वाले को, किसी मजबूर दोस्त को या किसी बच्चे को ये काम भी न करना पड़े।
ये मौत का साल था,रिश्ते मरे,अजीज़ कई कह गए अलविदा, कुछ मरहूम हुए, कुछ बदल गए, अल्लाह उनकी उम्र लम्बी करे , आख़िर मुझसे शिकायतों के लिए वक़्त काफी चाहिए होगा।
मैंने देखा है क़रीब से बैठ कर , बस करीब २ घंटे में एक जिस्म था जिसे मैं वालिद समझती थी , आग के सुपुर्द हुआ और एक मुट्ठी राख बचा।
रिश्ते , मोहब्बत के वादे , तुम्हारा कोई दिन अब तन्हा न होगा के इरादे , वो जब जले तो मुट्ठी भर राख़ भी हाथ न आयी की बहा देती किसी नदी में और पूरी हो जाती रस्मे-दुनिया।
शायर ने क्या खूब लिखा है दोस्त बन-बन के मिले मुझ को मिटाने वाले, जिन्होंने इस बेरंग चॉक से बने स्केच जैसे दिल में रंग भरे , कच्चे रंग जो वक़्त की पहली आँधी में ही उड़ गए, स्केच का खांचा हमेशा के लिए बिगाड़ गए।
दिल एक दरार वाले मिट्टी के बर्तन सा, रिसती है उससे ज़िन्दगी , न टूटा है, न जुड़ा है। न पहले सा पूरा बचा, न टुकड़ा टुकड़ा बिखरा की दफ़नाया जा सके।
रूह खंडहर ,भरभरा के दरकने लगी है , लगता है अब का सर्द मौसम आख़िरी हो , जब ये जगह खाली हो जाए तो यहीं मिलना है उस किसी से जिस के लिए रूमी कह गए थे – तुम मिलना मुझे शहर से दूर उस खुले मैदान में…….
तब तक हम ख़ाक ख़ाक उड़ते हैं कसूर से इस्तांबुल तक, किसी के जर्मन गाँव के बर्फ हुई झील से दूर कहीं किसी हसरतों के समंदर के किनारे तक।
एक और साल के साथ कुछ और तमाम हम हुए !
साँस लेना कोई दलील नहीं
मैं नहीं मानता,ज़िन्दा हूँ मैं