तुम, मैं, और तुम

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तुम…….
मैंने नहीं चुना तुम्हें
तुम दोनों की कोशिकाओं से बने इस जिस्म को
तुम ने अपनी संतान माना
और मैंने तुम्हें माँ-बाप,
जो हमें जोड़ता है
या तोड़ता है
वो इस से कहीं बड़ा है!

तुम……..
तुम और मैं
शायद एक ही अस्थि-मज्जा से बने
भाई-बहन, परिवार
लेकिन हम में जो एक सा है
और जो कटुता है
वो जटिलता है
जीवन की-

तुम और मैं
तुम मेरा सर्कल
मेरे दोस्त, हमकदम
हमप्याला, हमनिवाला
तुम कभी पास, कभी दूर
कभी दुनिया से मजबूर
हमारे यहाँ दोस्ती
रिश्ता नहीं होती
नहीं मिलती औरतों को इसकी अनुमति

तुम बस तुम
जिसमें मैं नहीं बची
हमसफ़र हुए
एक घर हुए
तल्खियाँ फिर भी खिड़कियों से
चुपचाप परस गयीं
पहले हम एक थे
अब हम दो हुए

तुम मुझसे बनी
मुझ सी लेकिन मेरी नहीं
मेरी बेटी- मेरी उड़ान
तुमसे मैंने सीखा
खुद को मैं ही रखना
माँ का ताज नहीं पहनना
बस इंसान ही रहना
तुम रहना -अलग पर मुझ सी

तुम, पूजा
मेरी हमनाम, हमजिस्म
मुझ में और तुम में एक क़रार है
उसे बनाये रखना
ज़िन्दगी की प्यास जब तक रहे
मेरी आँखों में चमकती रहना
तुम, मैं, और तुम में सब हैं
तुम और मैं ही तो इस सब का सबब हैं

तुम और मैं
और, एक हम

काश…..

काश ज़िंदगी पहाड़ नहीं पेड़ होती
काश समय नदी नहीं समंदर होता

काश हाथों की लकीरों में होता नसीब
काश पाँवों में सफ़र के नक़्शे होते

काश लफ्ज़ ख़ाली सुराही होते
काश मायने ठंडा पानी
काश मुझे कविता लिखना आता
काश तुम समझ रहे होते

काश ये काश शायद नहीं
मुमकिन होता
काश ये रात- दिन नहीं
बेवजह होते

काश तुमने सीखी होती
जिस्मों की ब्रैल
काश दर्द की एक ही लिपि होती

काश काश काश

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बेड़ियाँ

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एक छोटी बच्ची की पीठ पर बस्ता है
उसका नहीं
छोटे भाई को स्कूल लेने जाती है
उसकी आँखों में देखती हूँ
वो सज़ाएँ जिन्हें यहाँ परिवार त्याग कहते हैं

अपने मेन्स्ट्रूअल कप की दराज में
वो शर्म, वो नफरत दिखती है
जो लड़कियों को बताकर अपवित्र
उनसे अपने जिस्म से करवाई जाती है

मुझसे दस साल छोटी
उस लड़की के पाँव देखती हूँ
वेरिकोस वेन्स बताती हैं
जबसे उसने चलना सीखा
वो कभी आराम से बैठ नहीं पायी

अपने जैसी उस माँ को देखती हूँ
हर माँ जिनकी बस एकल होने की
प्रतिशत अलग -अलग है
जिसको याद नहीं आखिरी बार कब
सोई थी बेपरवाह

पत्नियों को देखती हूँ
प्रेम में सब कुछ मिला
बस प्रेम नहीं
झूठे फ्रेमों में छिपी
नफ़रत को गर्व बताने की मजबूरी
की तिलमिलाहट सूंघती हूँ

50 के पार फेमिनिज़्म समझती
चश्मे से ढकी आँखों के पीछे
देखती हूँ अफ़सोस, गुस्सा शायद घृणा
हमारे समय में क्यों नहीं हुआ?

पन्ने पलट रही हूँ
वो कहानियाँ जो मिक्स दाल सी हैं
जो कभी गल गयी कभी जल गयी

“बी स्ट्रांग” “सुपरवूमन”
पढ़ती हूँ, फाड़ देती हूँ
बेड़ियाँ जो दिखती नहीं
वो देखती हूँ

अकेली औरतें

कुछ हुआ है जाने क्या, जहाँ भी जाती हूँ अकेलापन दिखता है। युवावस्था में पति को खो चुकी दोस्त से लेकर बुढ़ापे में अकेली रहती औरतों का अकेलापन। घरों में परिवारों के बीच भी, माँ-बहन-बेटी-बीवी के रोल निभाती अकेली औरतें सबसे ज़्यादा दिल तोड़ती हैं।
अकेली औरत इस समाज के वो अदृश्य कोने हैं जहाँ यहाँ के संस्कार, संस्कृति, महान परिवारों की चमक नहीं पहुँच पाती।
वो दर्द छुपाती हैं, प्रेम रोक रखती हैं, अवसाद में चुपचाप घुलती रहती हैं उफ़ तक नहीं करती क्योंकि बोलती हुई औरतें अकेली तो होती ही हैं वो “बुरी औरत” का तमगा देकर और हाशिये में धकेल दी जाती हैं।
औरत यहाँ तब तक स्वीकार्य है जब तक बलिदान, त्याग के नाम पर खुद को मिटाती हुई महान बनी रहे।

पितृसत्ता में ऐसे गुंथी हुई औरतें कि अपने जैसी दूसरी अकेली औरतों से भी भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाती, अपने दुःख के लिए पितृसत्ता के बजाय औरतों और मर्दों को दोष देती, अपने अकेले पाले हुए बच्चों से भी सम्मान खोती हुई या फिर उनपर इतना निर्भर होती हुई औरतें कि बच्चों का दम घुटने लगे।

हम सोचने और बोलने वाली उद्दंड औरतें
हमारे कोई घर नहीं
हमारा कोई अपना नहीं

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तुझे भुला दिया…..

दर्दनाक हादसों को भुला देना या उनकी स्मृति को धुंधला कर देना जीवन की वो शक्ति है जो हमें आगे बढ़ने में मदद करती है। प्रसव के दौरान भी ऑक्सीटोसिन हॉर्मोन का शरीर में अधिक होना इसलिए भी होता है ताकि स्त्री/मादा उस दर्द को भुला कर दोबारा बच्चे पैदा करे जो कि किसी भी प्रजाति के बने रहने ले लिए ज़रूरी है!


लेकिन कुछ मेरी जैसी अजीब आत्माएँ भी है जिन्होंने न सिर्फ अपने हरेक दर्द को कलम और ढाल बनाया, पर भुलाया भी नहीं, याद रखा ताकि जो उससे सीखा उसे भूल न जाऊँ बाकि जिनकी वजह से तकलीफ हुआ उन्हें माफ़ करना इस दर्द के एहसास के साथ जीने का पहला कदम है।

तुझे भुला दिया……

मेरे लिए बरसात और सर्दियाँ प्रताड़ना के दिन हैं। शरीर इन्हें झेल नहीं पाता और मन बार-बार उन राहों से गुज़रता है जिनकी कोई मंज़िल नहीं। पहले ये चारदीवारी थी मेरी क़ैद अब एक स्क्रीन तक सिमट आयी है।

नींद में सफर जारी है, मैं अपने लक्ष्मी बाई हॉस्टल के कमरे के सामने वाले लंबे कॉरिडोर में अकेले भागती चली जा रही हूँ, और कोई अंत नहीं, वो व्हील चेयर जिसमें बैठ कर अपना 16वां जन्मदिन बिताया था मन के किसी कोने में उसके पहिये चमक रहे हैं और ब्रेक ख़राब हो गयी है।

बंगला साहब के सरोवर की सीढ़ियों पर फिसलता वक़्त छपाक! पानी में कूद गया है, एक छोटे बच्चे की गूंजती किलकारी देखने के लिए मुड़ती हूँ तो कोई नहीं है, अकेली खड़ी हूँ ! पाँव पत्थर हैं, कंधे बर्फ, एक याद है जो साँस थाम लेती है मगर मरने नहीं देती।

डिप्रेशन

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डिप्रेशन
जिस्म में लाख दर्द हैं इसके
दिखते नहीं जैसे तुम्हें नहीं दिखते
टाइप किए और भेजे नहीं
मेरे लाखों मेसेज

मुस्कानें, पहचानें
काम, किताबें, बातें
सब हैं
और एक पीला कोहरा
जिससे इनकी गर्मी
दिल तक नहीं पहुँचती

मैं हूँ कि नहीं हूँ
पूछती हूँ स्क्रीन पर
उभरते हुए लफ़्ज़ों से
तुम हो कि नहीं हो
मुझसे दूरी पूछती है!

कोविड काल, क्या खोया क्या पाया #डायरी2020 #MyFriendAlexa

तकना स्क्रीनों से रिहाई की उम्मीदेंमेरी रात मिलती है तेरी दोपहरों से timezones भी क्या वक़्त का सितम हैं जाना! इस दुनिया में दर्द इतना होगा, कि अब बर्दाश्त नहीं होगा, अक्सर सपनों में आती है पाकिस्तान की वो 7 साल की नौकरानी/बच्ची जिसे मार दिया गया क्योंकि उसने एक पिंजरे से पंछीयों को आज़ाद कर दियाकहने वाले कहते हैं मौत आज़ादी है ज़िंदगी क़ैद…. आज जाने कौन सा दिन है, कौनसी सज़ा बाकी है – 8 June

जो मुझसे मिल चुके हैं शायद जानते हों, मुझे पसंद है दोस्तों को गले लगाना, उनका हाथ थामकर बातें करना, चलते हुए उनके कंधे पर बाज़ू रखना….. नई दुनिया में शायद ये सब प्रतिबंधित है….. मेरे अनेक दोस्त हैं जो सिर्फ छू कर दुनिया देखते हैं, ब्रेल से किताबें पढ़ते हैं, उनके लिए डरती हूँरोज़ एक एक पत्थर अपनी रूह से हटाती हूँ, कोशिश करती हूँ किसी और को सुकूँ का एक पल दे सकूँनानी के घर के रास्ते अब लगता है पहले से भी अधिक पथरीले हो गए हैं, बिछड़े सभी बारी- बारीस्क्रीन की क़ैद बाकी है, इस सेहरा में कहीं छाँव का एक टुकड़ा भी नहीं

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खाना प्रिविलेज है, पानी, छत, चाय सब प्रिविलेज हैं इसका हमेशा से एहसास है, जाने कितने लोग हैं जो अभी भूखे हैं, जिन्हें भोजन की आस दी गयी है लेकिन अगला भोजन आयेगा या नहीं पता नहींकितने लोग हैं जिन्हें हम चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं अबे मूर्ख हाथ धो ले, लेकिन नहीं जानते उसके घर में पानी नहीं, टॉयलेट नहीं, साबुन नहीं

मेरा एक और प्रिविलेज है मेरा काम, मानसिक स्वास्थ्य में या लिख पढ़कर थोड़ी जागरूकता में मदद, वही है जो समाज को लौटा सकती हूँ, लौटाती रहूँगी

वक़्त मिटने लगा है और दिन नहीं गुज़र रहे, मैं पहले से ही बहुत भूलने लगी थी अब आलम ये है की sleep paralysis जैसा कुछ जागते हुए भी साथ हैपूरा दिन गुज़र गया है उल्टी पैंट पहने, वेबिनार में सिर्फ शर्ट दिखती है और चेहरा, रूह के दर्द कहीं नहीं दिखते, माँ होने पर इंसान होना यहाँ allowed नहींपंजाबी में मीडिया ट्रेनिंग है बहुत सी यादें ताज़ा हो आई हैं, 1947 में कितना कुछ खोने पर भी जिस परिवार का इंसानियत से विश्वास नहीं उठा था, उस परिवार की एक बेटी अपने आसपास इतनी नफरत देखकर सहम गयी हैदुःख हमें बेहतर इंसान नहीं बना पाते तो निरर्थक हैं

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स्वयं से संसार तक

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मैं थोड़ा पास जाने लगी तो वो चौंकी, मुखौटों ने विश्वास की मुस्कान जो ढक रखी है, मैंने हाथ हिला के हैलो बोला, वो मुस्कुराई.मैंने कहा मास्क है? उसने झोले में से निकाल के दिखाया.मैंने कहा पहने रखो मार्केट के बीचों बीच बैठी हो न. परिवार? माँ पान बेचती है पास ही रेढ़ी है, पिता नहीं हैं.पढ़ रही हो? होमवर्क? हाँ, थोड़ा गर्व था उसकी आवाज़ में थोड़ी उदासी, स्कूल कबसे बंद है, माँ के फोन से पढ़ती हूँ थोड़ा मुश्किल है बोली

मैंने कहा पर जितनी मेहनत तुम कर रही हो बहुत बच्चे नहीं करते, मेरी बेटी भी नहीं.उसका नाम क्या है? प्रियंवदा

मेरा नाम रजनी है 🙂

मेरा नाम पूजा है, तुम्हें disturb किया इसके लिए सॉरी बोलने के लिए तुम्हें एक चॉकलेट दे सकती हूँ

हाँ it’s okay कहकर उसने ली

मैंने कहा अपनी बेटी और दोस्तों से तुम्हारी बात करूँगी उसके लिए एक तस्वीर ले लूं वहाँ दूर से बोली हाँ और वापस अपनी कापी पर झुक गयी

मुझे पता नहीं मैं उदास हूँ या खुश हूँ! 3 September

कोवीड काल में रजनी जैसे अनेक दूसरों लोगों से मिली उनकी तकलीफ देखी, समझने की थोड़ी कोशिश की, अपनी बेबसी पर दुखी भी हुई। दुःख बस इतना ही है कि मेरी उम्मीद थी इस काल में लोग थोड़े और संवेदनशील होंगे लेकिन वो और भी क्रूर होते चले गए।

मेरे फोन पर दिन भर जो भूख की तस्वीरें आती हैं उन्हें देखकर ये सब्ज़ी की तस्वीरें अश्लील लगती हैं, भूख मर जाती है!

मानव सभ्यताओं को उनके घुटनों पर लाने में प्रकृति को बस कुछ हफ्ते लगे, नहीं? क्योंकि हमें लगने लगा था ये पृथ्वी हमारी संपत्ति है, वैसे भी वैज्ञानिक कहते हैं जो species बहुत तेज़ी से बढ़ने लगती है उसे प्रकृति रोक देती है

काम… सभ्यताओं के काम, सबको अपना काम खुद ही करना चाहिए बशर्ते परिवारों में काम जेंडर के हिसाब से ना बटे हों, जिन्हें कोई शारीरिक दिक्कत है उनके लिए सहुलीयतें हों, नहीं? ये छत होना, अगले टाइम के लिए खाना होना प्रिविलिज है जिसे इंसान आज तक सबके लिए बराबर नहीं बना सके वायरस से ज़्यादा लोग आज भी अकेलेपन, नफरत और इस गैर- बराबरी से मर रहे हैं, यकीं ना हो तो अपने आस पास देखें कोई औरत तो होगी हीसुरक्षित रहें, हक की बात करें सबके, थोड़ा अपने प्रिविलेज की बेशर्मी त्यागें, शुक्र गुज़ार रहें

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औरत और माँ – मानसिक स्वास्थ्य के लिए वक़्त कहाँ

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मर्दानगी के पिंजड़े

भारत में वैसे ही मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं , इसे मन का वहम , भूत-प्रेत का साया कह दिया जाता है , डिप्रेशन और एंग्जायटी को कमज़ोरी बताया जाता है और आत्महत्या को कायरता

ऐसे में मर्दानगी के घड़े हुए मानकों में पुरुष तो अपने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बोल भी नहीं पाते। कई पुरुष घर में शारीरिक और मानसिक शोषण सहते हैं , ऐसे अनेक लड़कों को जानती हूँ जिनके साथ घर में ही बलात्कार तक हुआ लेकिन कभी किसी को बता नहीं पाए , कई पत्नियां शोषण करती हैं लेकिन समाज में मज़ाक बनेगा उस डर से उसे भी छुपाते हैं, कुछ चीज़ों से डर लगता है, अवसाद है लेकिन कैसे कहें क्यूंकि समाज कमज़ोर कहेगा पागल कह कर मज़ाक बनेगा boys will be boys , boys dont cry कह कर हम समाज में जेंडर विषमता ही नहीं बढ़ाते बल्कि अनेकों लड़कों को मर्दानगी के एक ज़हरीले भंवर में फेंकते हैं की “मर्द” साबित होने के लिए कठोर बनो , क्रूर बनो , भावनाएं मत दिखाओ , उग्र बनो , हिंसक रहो , सेक्स को काबू करने का हथियार या विजय पाना समझो !

“मास्साब से मार खा के ज़िंदगी बन गयी”
“माँ बाप की मार बहुत ज़रूरी है” कहने वाले लोग चाइल्ड अब्यूज़ को सही ठहरा रहे हैं, यही मारपीट बहुत से वयस्कों के हिंसक होने का कारण है

जहाँ community या समुदाय ऐसे मुश्किल वक़्त में ताक़त बन सकते हैं वहीं भारतीय समाज का जटिल ताना बाना कैसे अनेक लोगों को मानसिक पीड़ा और यहाँ तक कि आत्महत्या तक लेकर जा रहा है

कोरोना संदिग्ध होने पर परिवार ने एक बुजुर्ग को त्याग दिया, जबकि बाद में उनका टेस्ट नेगेटिव निकला, कोई पॉजिटिव हो तो शायद और देखभाल और सहयोग मिलना चाहिए, नहीं? लेकिन हम क्या देते हैं, तिरस्कार! दुत्कार! समझिये अपने परिवारों और समाज के ऊपर गलत जानकारी का प्रभाव, समझिये की आर्थिक अभाव के साथ संवेदना के अभाव से हम कितने क्रूर होते जा रहे हैं

और थोड़ा संवेदनशील बनिये, अगर जीवन में कभी भी आपके पास “मेरा कमरा” हुआ है तो ये कितना बड़ा प्रिविलेज है, इस महामारी में संवेदना को मरने से बचा लीजिये

मेरी बेटी ने बताया मदर टेरेसा कहती थी जितना भी करो कम है…. कोशिश जारी है बस खुद को बचाते हुए जितना हाथ बढ़ा सकें, खुद को सिखाते हुए जितनी सीख बाँट सकें खुद को समेटते हुए जितना किसी को बिखरने से रोक सकें

नहीं बदलेगी ये स्वार्थी क्रूर दुनियामेरा शुक्रिया हर दया के लिए, मेरी दुआ हर निर्दयता के लिए

Parents refuse to donate kidney to dying daughter, say ‘she is a girl’

Kidney, Patna, Bihar, Avgil, Sheikhpura district

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#CoronaDiaries

हर औरत माँ बनना चाहती है, औरतों को सेवा में ही खुशी मिलती है, प्यार मतलब सात जन्म, सेक्स मतलब प्यार, शादी मतलब बच्चे, रोमांस मतलब बारिश…..

डियर भारतीय समाज मुझे नहीं समझ आते तुम्हारे अनिवार्य वाले नियम, ज़िंदगी पहले ही बहुत सी क़ैद है, बख़्श दो, सांस आने दो

मुझे छूना पसंद है सब कुछ, प्रकृति ने तुमसे ये खुशी छीन ली है, अब छुओ मत दूर रहो

अखबार, खबर, और तुम सब चरस हैं, सबका दाम लग चुका हैअकेले जाम मनहूस होते हैं सुना था – 3 May, 2020

– सिर्फ वही काम महत्त्वपूर्ण है जिसकी एक आर्थिक कीमत है

– औरत कितना भी चाह ले , घर से बाहर कदम रखना उसके लिए आसान नहीं

– माँ बच्चों को छोड़ कर कुछ भी करे तो ग्लानि से भरी रहती है

– मर्दों के माता-पिता (औरत के सास-ससुर) को बहु से सेवा मिलनी ही चाहिए

-औरत को कुछ भी करना है तो अपने पैसे से करे ( मतलब जो साल , जो काम वो घर में करती है उस घर के पैसे पर उसका कोई हक़ नहीं )

ये सब #BenevolentSexism है – ये वैसा ही है जैसे कहना – औरतें कोमल होती हैं, माँ महान होती है

– ये सब औरतों को समाज द्वारा तय किये गए पितृसत्तात्मक ढाँचे से बांधे रखने की कवायदें हैं।”माँ का दिल” भी पितृसत्ता की पिलाई हुई एक घुट्टी ही है सबसे पहले इसको माँओं को ही त्यागना पड़ेगा।

Image may contain: text that says "Close to 90% of men and women hold some sort of bias against women. UN N DP"

UN के नये जेंडर और सोशल सूचकांक के अनुसार हम में से 90% लोग स्त्रियों के लिए किसी न किसी पूर्वाग्रह से भरे हैं!


ये कुछ भी हो सकता है, ये इतने गूढ़ हैं कि स्वयं स्त्रियाँ इन्हें सच मानने लगती हैं बिना सोचे समझे.
भारत में कुछ आम पूर्वाग्रह:
स्त्रियों अत्याधिक भावुक होती हैं और इसलिए मानसिक रूप से कमज़ोर.
स्त्रियों का माँ बनना ही उनके स्त्रित्व की पहचान है, हर स्त्री माँ बनना चाहती है.
औरत ने तरक्की की है तो मर्द के बलबूते या सेक्स का सौदा करके की होगी.

वर्क फ्रॉम होम ने भारत में औरतों की आज़ादी और दुनिया को फिर से एक चारदिवारी में समेट दिया है, हाँ यहाँ आना-जाना आसान नहीं लेकिन सफ़र करने में भी आत्मविश्वास बढ़ता है!

ये औरतों को वापिस उन बंधनों में बाँध रहा है जिनसे वो बड़ी लम्बी लड़ाइयों के बाद कुछ मुक्त हुई थीं- घर के काम, बच्चों की देखभाल, बुज़ुर्गों की देखभाल, अब भी काम सब उसके ही हैं थोड़ा बाहर आज़ादी की सांस ले लेती थी वो भी छिन्न गयी है, लॉक डाउन में घरेलू हिंसा भी बढ़ी और औरतों और माओं की बेबसी भी।

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“ज़िंदगी की जंग जारी है, जिस्म के साथ अब रूह भी थकने लगी है, घर है नहीं,मकान बिखरा पड़ा है…. खूबसूरत दस्तरखवानों वाले क्या एक अधूरी रेसिपी की व्यथा समझेंगे? अधूरा कुछ भी बहुत अधूरा होता है…. दुनिया का कारोबार किसी के बिना नहीं रुकता यही दुख है, खोने के गम ताउम्र वाले हैं” – 29 April

गर्मी बढ़ने लगी है और बेचैनी भी, हाँ मेरे पास हज़ार प्रिविलेज हैं लेकिन जिस्म और ज़ेहन की ऐसी हज़ार तकलीफ़ें हैं जिनका कोई इलाज नहींजब खाना नहीं बना पाती हूँ और बेटी “कुछ और” खा लेती है न अच्छा लगता है न बुरा, रूह सुन्न पड़ने लगी हो जैसेमुझे हंसाने के लिए वो मेरी सबसे पसंदीदा ice-cream लाई है, जानती हूँ हज़ारों लोगों को शायद ठंडा पानी भी नसीब नहीं, लेकिन ये सामने होकर भी खा ना सकने का दर्द भी बेबसी हैआज सारे काम मुल्तवि कर दिये हैं, एक ज़रूरी मीटिंग भी…… हरेक सांस भारी…. हर रूह प्यासी- 25 May

घर और दफ्तर, बैडरूम और बाज़ार अलग-अलग इसलिए बनाये गए होंगे क्योंकि उनका माहौल अलग होता है और वहाँ से इंसान को मिलने वाला सुकून भी अलग। लॉक डाउन और महामारी ने सब कुछ घरों तक समेट दिया है, ये चारदीवारी ही सब कुछ है। मैं यूँ तो पिछले 12 सालों से घर से काम कर रही हूँ, लेकिन अब जब स्कूल भी लिविंग रूम से चल रहा है, रसोई, सफाई भी साथ-साथ और स्काइप मीटिंग भी तो लगने लगा जैसे मुझसे बंधी हज़ारों रस्सियाँ हैं जो खींच रही हैं मुझे अलग-अलग दिशाओं में।

और ये भी कि सबके लिए मकान घर नहीं होते, सुकून नहीं होते। अपने मेन्टल हेल्थ के काम में रोज़ सुनती कैसे लोग घुटे हुए हैं घरों में, कैसे कुछ घर जेलों से भी बदतर हैं ख़ास कर औरतों और बच्चों को लिए, उनके लिए स्कूल/कॉलेज या काम पर जाना ही कैसे रिहाई थी।

ये पोस्ट अक्टूबर में लिख रही हूँ मेरी बेटी पिछले 8 महीनों से घर पर है, स्कूल खुलने की अब कोई उम्मीद ही नहीं…………………………

क्या यही वो नया नार्मल है ?
ज़रूरी नहीं जो सुरक्षित हो वो आपके लिए अच्छा भी हो! सोचियेगा!

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मानसिक स्वास्थ्य: एक अदृश्य महामारी #डायरी2020 #WorldMentalHealthDay

 “दुःख एक आजीवन प्रक्रिया है, मौत भी”

ट्रिगर अलर्ट: ये पोस्ट मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या से सम्बंधित है

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मानसिक स्वास्थ्य की बात वैसे भी इस देश में करना आसान नहीं जहाँ लोग आज भी ओझा/बाबा या किसी मंदिर दरगाह में पहले जाएंगे और किसी डॉक्टर के पास बाद में। अक्सर लोग मानसिक बीमारी का बस एक ही मतलब जानते हैं – पागल होना! और ये लेबल तो किसी को खुद पर या पाने प्रिय जन पर नहीं चाहिए।
मानसिक बीमारियों में डिप्रेशन/अवसाद और एंग्जायटी/व्यग्रता सबसे आम हैं, लेकिन इन दोनों और अन्य मानसिक रोगों के बारे में हमारे समाज में हज़ारों गलत अवधारणाएँ व्याप्त हैं। जिनमें से कुछ हैं:-

डिप्रेशन सच नहीं होता ❌

डिप्रेशन उन्हें होता है जो कमज़ोर होते हैं ❌

डिप्रेशन उतना ही सच है जितना कैंसर, और कई बार इसका कोई कारण नहीं होता ✅

डिप्रेशन एक अदृश्य तकलीफ है ✅

एंग्जायटी झूठ है ❌

आत्महत्या की बात करने वाले बस तमाशा करते हैं ❌

मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहा व्यक्ति ही ऐसे बर्ताव करता है, अक्सर खुद को नुक्सान पहुंचाने की बात करना मदद की गुहार होती है ✅

मैं मानसिक स्वस्थ्य संबंधी प्राथमिक चिकित्सा देती हूँ और लॉक डाउन के दौरान मानो ऐसी तकलीफों की बाढ़ आ गयी, भारत में वैसे भी मानसिक स्वास्थ्यकर्मी कम हैं तो हम सब किसी-किसी दिन 20-20 घंटों तक कॉल, वीडियो और चैट पर बने रहे। ये हमारे अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी कोई बेहद अच्छा वक़्त नहीं था। मैंने ट्विटर पर एक रिपोर्टेड आत्महत्याओं की लिस्ट बनानी शुरू की लेकिन ये आँकड़े बढ़ने लगे और भारत की कुछ मशहूर हस्तियों की आत्महत्या से मृत्यु की ख़बरों से मानो पूरा देश ही विचलित हो गया।

शोध से ये बार- बार साबित हो चुका है की सभी आत्महत्या का कारण मानसिक स्वास्थ्य की दिक्कत नहीं होती और हर बार ये सोचा समझा योजनबद्ध नहीं होताआत्महत्या एक पब्लिक हेल्थ का विषय है, ये psychosocial है इसके अनेक सामाजिक आयाम भी हैं, 1999-2016 तक 54% आत्महत्या से मृत व्यक्तियों को कोई मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानी होने की जानकारी नहीं हैं

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2018 में भारत में आत्महत्या के मुख्य कारण

1. पारिवारिक समस्या 30.4%

2. बीमारी 17.7%

3. अंजान कारण 11%

4. विवाह संबंधी समस्या 6.2%

5. शराब या ड्रग्स 5.3%

6. प्रेम संबंध 4%

7. दिवालिया होना 3.7%

8. परीक्षा 2%

9. बेरोजगारी 2%

10. नौकरी/व्यवसाय 1.3%

11. प्रॉपर्टी 0.9%

12. गरीबी भुखमरी 0.9%

13. प्रिय जन की मृत्यु 0.8%

14. विवाहोत्तर संबंध 0.5%

15. बदनामी 0.4%

16. मर्दानगी संबंधी समस्याएं /औलाद न होना 0.2%

जैसा की स्पष्ट है अधिकतर समस्याएं सामाजिक हैं हमें आत्मविश्लेषण की ज़रूरत है कि हम कैसा समाज और कैसे परिवार हैं, फिल्हाल तो सबसे बड़े विलेन हम ही हैं!

किसी की आत्महत्या के बारे में बात करते हुए संवेदनशील रहें-

  • आत्महत्या/खुदकुशी “की” नहीं बल्कि “आत्महत्या से मृत्यु हुई” लिखें
  • अटकलें न लगाएं, क्यों, कैसे
  • आत्महत्या के तरीके की बात न करें
  • आत्महत्या कायरता नहीं हैं
  • आत्महत्या बहादुरी भी नहीं है
  • किसी के मानसिक स्वास्थ्य का diagnose सार्वजनिक करने या उस पर टिप्पणी करने से बचें
  • ऐसी लापरवाह बातें दूसरे लोगों के तनाव को बढ़ा सकती हैं
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लॉक डाउन मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुश्किल समय है , 5 टिप्स जो मैं आज से करने वाली हूँ, शायद आपके भी काम आएं

— रोज़ 3-4 अलग परिचित लोगों को बस मैसेज कर के हाल चाल जान लें (अनजान लोगों और महिलाओं को ख़ास कर मैसेज कर परेशान न करें ) किसी को आवश्यकता हो तभी कॉल करें , उनकी सुविधा का भी ख्याल करें

– एक ग्रेटिटयूड (शुक्राना) की लिस्ट रोज़ बनाएं – 5 चीज़ें जिसके लिए आप उस दिन शुक्रगुज़ार हैं

– इस मुश्किल समय में भी जो आपके घर तक ज़रूरत का सामान या सेवा पहुंचा रहे हैं ( सफाई कर्मचारी, डिलीवरी स्टाफ, सिक्योरिटी गार्ड) उन्हें सोशल डिस्टैन्सिंग बनाये रखते हुए , 6 फ़ीट की दूरी से धन्यवाद कहें (मुँह से या हाथ जोड़ के) , उन्हें कोई मदद कर सकें तो करें

– थोड़ा समय बाहर,छत, बालकनी , दरवाज़े/गेट पर अवश्य बिताएं , पड़ोसी से दूर से गप्पें लड़ा सकते हैं

– वीडियो, सोशल मीडिया से परे ऑडियो किताबों , रेडियो , पॉडकास्ट , संगीत सुनने की कोशिश करें ( व्हाट्सप्प वाले चमत्कारी ऑडियो नहीं )

Image may contain: 1 person, text that says "You cant catch COVID-19 from Standing two meters apart and... How's going Smiling at peopie Saying hello giving a nod of acknowledgment making eye contact with the person youre talking to my,, giving a little wave yelling 'I Love your dog, it's just So damn adorable!" Because S ocially distant doesnt mean Emotionally distant we are in this together @twistesdoodles"

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एक पल में ये क्या हो गया #डायरी2020

लॉक डाउन लाइफ #डायरी2020

हम एक क्रूर समाज हैं क्या?

औरत और माँ – मानसिक स्वास्थ्य के लिए वक़्त कहाँ?

स्वयं से संसार तक

अगली कड़ीघर से काम, घर के काम ,15 अक्टूबर को यहीं, बुकमार्क,फॉलो कर लें

#डायरी2020

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