1979 शिमला में जब मैं पैदा हुई तो मेरे पापा के पास कोई पेरेंटिंग की किताबें नहीं थीं जिससे वो थोड़ा ही सही पर समझते कि इस बच्चे को कैसे पाला जाए। “बच्चा” शब्द सोच समझ के इस्तेमाल कर रही हूँ, क्यूंकि उन्होंने कभी मेरे लड़की होने को मेरे वजूद का सबसे ज़रूरी हिस्सा नहीं होने दिया।
यूँ तो एक पढ़े-लिखे उदार घर में ये करना कोई मुश्किल नहीं रहा होगा शायद, पर सालों बाद मैंने समझा कैसे कभी दो टूक जवाबों से और कभी मज़ाक से उन्होंने सामना किया समाज के भद्दे सवालों का – “ओह बेटा नहीं है!” “इतने सालों बाद औलाद हुई भी तो लड़की!”
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा !
(ये था सिर्फ बोलना नहीं हर रोज़ जीना – बेटी बराबर है। )
वो पेशे से इंजीनियर थे, घर में कामकाज करने के लिए हमेशा लोग रहे क्यूंकि मम्मी भी नौकरी करतीं लेकिन फिर भी पापा अक्सर दिखते रसोई में हम सब के लिए कुछ पकाते हुए, शौक से मेरी स्कूल की ड्रेस को इस्त्री करते हुए , जब मम्मी क्रिकेट मैच देखती तो उनके लिए नाश्ता परोसते हुए,उन्होंने ही बदले रात रात भर जाग कर मेरे कपड़े के पोतड़े , जी हाँ तब डायपर का ज़माना नहीं था और जब देखते सब गीले हो गए ट्रंक में सिर्फ दो और बचे हैं , तो तुरंत धोते और वो ही हेंगर पर टांग कर हीटर की आंच से सुखाते उन्हें दोबारा प्रयोग के लिए , वो रात भर जाग कर बनाते दूध की बोतलें और जानते कब भूख के लिए रो रही है या कोई और परेशानी है।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा !
(ये था रोज़मर्रा में सिखाना कोई भी काम औरत का या मर्द का नहीं होता)
मैं शायद 4-5 साल की थी जब मैंने कहा मुझे छोटे बाल चाहिए , क्यूंकि मेरी आया दीदी जल्दी में जब सुबह-सुबह मेरे घुँघराले बाल कंघी करती तो दर्द होता, दादी की नाराज़गी से परे, उस ज़माने में “बेटी को इंदिरा गाँधी बनाएंगे” के तानों को परे रख के उन्होंने कहा तुम्हारी बॉडी है जैसा तुम्हें सुविधाजनक लगे और अगर इसमें तुम सुरक्षित हो तो इसमें सिर्फ तुम्हारा फैसला चलेगा और किसी का नहीं।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा !
( ये था मुझे सिखाना बॉडी ऑटोनोमी, मेरे जिस्म पर मेरा हक़ )
थोड़ी और बड़ी हुई तो वज़न ज़्यादा था, रंग सांवला , बहुत ताने मिलते – “मोटी , हाथी का बच्चा !” पापा से रो कर बताया तो बुद्ध की कहानी सुनाई पहले कि वो गाली/अपशब्द दे रहे हैं पर जब तक तुम लोगी नहीं वो बेकार हैं”
“मतलब?” मैंने पूछा। बोले दुनिया को नहीं बदल सकते हम, तुम एक से लड़ लोगी , दो से चार से , वे दरअसल खुद ही सोच से बीमार हैं उनसे क्या लड़ना , तुम कैसे उनका सामना करोगी वो बदलो- एक पुरानी कहावत सिखाई – हाथी चले बाजार कुत्ते भौंके हज़ार।
उनके कहने भर से मुझे हाथी कहलाना गर्व की बात लगने लगी न की तिरस्कार की , कि कोई इतना विशाल और शक्तिशाली होकर भी अधिकतर शांत रहता है , दूसरे जानवरों को मार कर नहीं खाता। अगले दिन से वो जब भी कुछ कहते मैं मुस्कराकर आगे बढ़ जाती , जब उन्हें लगने लगा इसको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा तो उन्होंने मुझे परेशान करना बंद कर दिया।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा !
(मैं सीख गयी थी आत्म-सम्मान, तिरस्कार से लड़ते हुए खुद से प्यार करना)
अपने दफ़्तर में पापा अफसर थे घर पर भी लोग काम करते थे , पापा हमेशा उनसे अच्छे से बोलते, उनके बर्तन या बैठने की जगह वैसी ही होती जैसी हमारी, एक बार गुस्से में मैंने हमारे रसोइये से कुछ ऊँची आवाज़ में कहा तो पापा ने पहले समझाया कि वो तुम्हारे लिए काम नहीं करता, अगर नौकर भी समझना है तो वो मेरा नौकर है मैं उसको रसोई का काम करने के पैसे देता हूँ तुम नहीं , फ़िर भी मैं कभी उससे बदतमीज़ी से नहीं बोलता क्यूंकि वो हमारे घर में काम करता है लेकिन किसी भी तरह हमसे कम इंसान नहीं हैऔर फिर कहा जाओ माफ़ी मांगो। उसके बाद आज तक भी जितने लोगों ने मेरे घर या दफ्तरों में भी मेरे मातहत काम किया मुझसे हमेशा इज़्ज़त पायी।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा!
( मैंने सीखी श्रम की गरिमा और ये कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता )
मैं 13-14 साल की थी तो देखा अपनी दोस्तों को जब भी पीरियड्स होते कितनी परेशानी रहती, बाजार में तब मिलने वाले बेल्ट वाले सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल में मुश्किल होते और जो कपड़ा इस्तेमाल करती उन्हें साफ़-सफाई की दिक्कत रहती, अक्सर स्कूल की स्कर्ट पर खून का दाग लग जाता तो कमर पर स्वेटर बाँध कर छुपाते हुए घर तक आना पड़ता। पापा ने समझाया पीरियड्स के बारे में सब कुछ, जब मुझे पीरियड्स हुए मेरे पैडमैन इंजीनियर पापा ने मेरे लिए बनाये घर में रूई और गॉज़ से हमारे अपने पैड सिखाया इसमें कुछ शर्म नहीं।
15 की थी जब पहली सर्जरी हुई, पूरा दिन सीधा लेटे रहना पड़ता , पैड में गीलेपन और सीधे लेटने से बहुत दिक्कत हो रही थी। गूगल नहीं था तब पर जाने कहाँ से पापा ने पता लगाया टेम्पोंस के बारे में , शिमला में मिलते नहीं थे, चंडीगढ़ से मंगवाए और नर्स के साथ मुझे प्रयोग करना भी सिखाया। घर में माहवारी से जुड़े कोई भी भेदभाव मेरे साथ नहीं होने दिए, हमेशा इसके बारे में खुलकर बात हुई , सेनेटरी नैपकिन कभी छिपाये नहीं गए।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा!
(मैंने सीखा औरत होना, माहवारी होना मुझे अपवित्र नहीं बनाता , ये सामान्य है )
मैं 15 की थी, हम दोनों ही धार्मिक नहीं थे फिर भी एक दिन मुझे ले गए बनारस के असी घाट पर अंत्येष्टि दिखाने और कहा तुम्हें मेरे लिए ये करना होगा। मैंने कहा ठीक है , उस समय डर लगा था लेकिन जब 21 साल बाद असल में ये करने का मौका आया मेरे 36वें जन्मदिन के अगले दिन ही मैं थी उनकी विवाहित बेटी जिसके उनकी अंत्येष्टि करने से मेरे आसपास के बहुत धर्मनिष्ठों को घनघोर आपत्ति थी , लेकिन न मेरी आवज़ कांपी न हाथ , और जैसा कुदरत को मंज़ूर था शायद, मेरे पीरियड्स भी चल रहे थे , शिमला के उस शमशान में पिता की अंत्येष्टि करने वाली पहली बेटी थी। दुःख था लेकिन जानती थी कि वो यही चाहते थे और मैं भी।
मुझे लगता इसमें क्या ख़ास है सबके पिता करते होंगे ऐसा!
(मैंने सीखा कि जैसे “ममता” होने के लिए माँ होना ज़रूरी नहीं वैसे ही मुझे “बेटे जैसा ” होना ज़रूरी नहीं मैं बेटी होकर भी बराबर हूँ )
मुझे पहली बार सेफ सेक्स की शिक्षा पापा ने दी, अकेले सफर कैसे करना है उन्होंने सिखाया, बैंक खाता चलाना दसंवी कक्षा से सिखाया। मुझे वो सब पढ़ने , समझने , घूमने दिया , इजाज़त की तरह नहीं मेरे हक़ की तरह। लेकिन जब तक वो रहे मुझे लगता रहा ऐसा सबके पापा करते होंगे, बहुत देर से समझ आया कि जिस समाज में मैं रहती हूँ वहां अधिकतर बाप तो क्या बहुत सी माएँ भी अपनी बेटियों के लिए वो सब नहीं करते जो उन्होंने किया।
अब मैं खुद अभिभावक हूँ समझती हूँ बच्चे को अपनी गलती से आप सीखने के दर्द से गुज़रने देने कितना मुश्किल है ,सिर्फ मांओं के गुणगान करने वाले देश में एक संवेदनशील पिता होना कितना दूभर, आज जानती हूँ मेरे पापा ने बहुत कुछ किया जो ख़ास है।
ये जो औरत मैं हूँ
मेरे पिता का अटूट विश्वास हूँ
उनकी बराबरी की आस हूँ
ये जो औरत मैं हूँ
मुझ में उनकी समझ और सोच है
मेरी आवाज़ में उनका ओज है
ये जो औरत मैं हूँ
एक पिता की परवरिश हूँ
जिस्म से औरत
रूह से दरविश हूँ
ये जो औरत मैं हूँ
खुद को इंसान पहले समझती हूँ
माँ होने के गर्व से नहीं भरती हूँ
क्यूंकि मैं , मेरीआवाज़, मेरी रीढ़
मेरा श्वास
मेरा खुद पर विश्वास
मेरे मृत पिता की धरोहर है
मैं सिर्फ मैं नहीं हूँ
मेरे पिता मुझ में अमर हैं !
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फुटनोट: आज मेरा जन्मदिन भी है और कल पापा की पाँचवी पुण्यतिथि भी , ये लिखना जितना ज़रूरी था उतना ही मुश्किल भी।
Firstcmy namaste and pranams to uncleji
Insaan bada hota hain, jabh unki soch bade hotein hain
And your Appa was an example of this
I am happy you shared this beautiful thoughts
And yeah, you are reflecting his reflections
And I can relate to this post
Because my appa was one
And like you I took it for granted that all appas are like this, only to fund him now in the sky shining
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Thanks a lot
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रुला दिया आपने तो..।सच में पापा के प्यार का बखान नहीं किया जाता।मैं समझ सकती हूँ आपके मन का हाल।मैंने भी अपने पिता खोए हैं 10दिन पहले।29फरवरी को उनकी शादी की 50वीं सालगिरह के अगले दिन।और देखो वो दिन भी चार साल बाद आएगा।पापा नहीं चाहते थे कि हम उस दिन उन्हें याद करें और उदास हों लेकिन पापा के याद करने के लिए कोई दिन नहीं होता वो तो हमेशा याद रहते हैं।
Sangya Nagpal
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Shukriya Sangya
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I lost my father 5 years back and still there is not a single day when I do not remember him, his way to guiding and teaching was just awesome. this post brought many memories in front of my eyes , your dad was an amazing man.
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Thanks a lot for your kind words
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Dad’s always have the best in store for theirrdaughters. This post is truly beautiful and touching. Baccha is the vocab to be adopted by all. And so relatable true… Hathi chale bazar kutte bhonke haazar. I did watch you women’s day video too. Clarity is what you have on thoughts and is expressed in the same way. Good luck!
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दिल छू लिया आपने पूजा 🙂 ऐसे पापा बस खुशनसीब बेटियों को मिलते है। पढ़कर बिल्कुल मेरे पापा की याद आ गयी। आज भी जब मैं बेचैन होती हूँ बस एक बार पापा से फ़ोन पे बात कर लेती हूँ, बिना कहे भी सबकुछ ठीक हो जाता है। ऐसे पापा सबको मिले। अच्छा लगा आपने इस ब्लॉग हॉप में इतना सुंदर पोस्ट लिखा 🙂
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thanks Rashi
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Main apko bata nahi sakta ki ye post padh ke mujhe kitna acha laga aur ye mere dil ko kitna chua. Is vishay ko jis tarike se samajh ek mard pe likhna, apke ander ki gehrayi ko darshata hai. Afsos ki aise insan se milne ka mauka nahi milega…nahi to bahut kuch tha unse seekhne ko. Aur behad khush hu ki unki sikhayi huyi cheezein, unki sabse umda kriti ka aj ye lekh main padh pa raha hu.
#RRxMM #TheWomanThatIAm
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Lots of love to you Pooja and huge respect to your dad. Literally I’ve tears in my eyes while I’m writing this comment. Not only it reminded me of my dady but also made me feel so happy reading about the bond you share with your dad. Blessed are the girls who get such incredible experience in life. Glad to connect.
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पिगबैक: 'The Woman That I Am' Blog Hop Winners & Anthology Shortlist - The Contemplation Of a Joker
पिगबैक: It’s Only Words and Words are All I Have… – RITEContent – Reach the Peak